कहानी संग्रह >> भिक्षुणी (अजिल्द) भिक्षुणी (अजिल्द)शिवानी
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शिवानी जी की श्रेष्ठ दस कहानियों का संग्रह.
Bhikshuni a hindi book by Shivani - भिक्षुणी - शिवानी
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
तोमार जे दोक्खिन मुख
गम्भीर रात की गहन शून्यता में तमिलनाडु एक्सप्रेस तेजी से वन-अरण्यों को चीरती जा रही थी। उस सुदीर्घ यात्रा में अपने डिब्बे का एकान्त सहसा मुझे भयावह लगने लगा। एक बार कंडक्टर आकर, बड़ी नम्रता से पूछ कर चला गया था, ‘‘मैडम, यदि आपको अकेले सफर करने में आपत्ति हो तो बगल के डिब्बे में ऊपर एक बर्थ खाली है...’’
‘‘नहीं, मैं यहीं ठीक हूँ।’’ कह, मैंने उसका विनम्र प्रस्ताव फेर दिया था। अटपटे अनचीन्हें यात्रियों के सहचर्य से मुझे एकान्त ही अच्छा लगता है। किन्तु अँधेरा होते ही वह एकान्त मुझे सहमा गया। बत्ती जलाकर मैंने एक बार पढ़ी पत्रिकाओं को फिर उलटा-पलटा। चिटखनी ठीक से लगी है या नहीं, यह देखा। सिरहाने की खिड़की के दोनों शटर चढ़ा लिये। फिर भी न जाने कैसा भय लग रहा था। इससे पूर्व भी कई बार अकेले कूपे में यात्रा कर चुकी थी। किन्तु अस्तिबोध ने कभी नहीं सहमाया। मन ही मन मनाती जा रही थी कि किसी सदगृहस्थ का परिवार यात्री बन जाए, क्योंकि कंडक्टर कह गया था, नागपुर से प्रायः ही भीड़ बढ़ती है। नागपुर में कोई परिवार तो नहीं आया, किन्तु एक के बाद एक दो सहयात्रियों ने मेरे सशंकित चित्त को शांत कर दिया। एक महाराष्ट्रीय महिला केवल एक टोकरी और एक बटुआ लेकर ठीक सामने की बर्थ पर आकर बैठ गई तो मेराचित्त विषण्ण हो गया। मैं समझ गयी थी कि उसकी यात्रा निश्चय ही ह्रस्व होगी। शायद तीन-चार स्टेशन बाद ही उतर जाएगी क्योंकि संसार की कोई भी नारी दीर्घ यात्रा बिना सामान के सम्पन्न नहीं कर सकती। मेरा अनुमान ठीक ही था।
‘‘मुझे वर्धा तक कुछ काम था। गांधी-साहित्य पर रिसर्च कर रही हूँ।
नागपुर बहन के पास आई थी। अब दूसरी बहन के पास जा रही हूँ। चौथा स्टेशन पड़ेगा।’’ मेरी वह प्रगल्भ सहयात्रिणी उस संक्षिप्त अवधि में भी, निरन्तर मैंना-सी चहकती, अपना पूरा परिचय दे गई थी। उसका नाम अनसूया पटवर्धन है। विवाह नहीं किया। लड़कियों के किसी कालेज की वाइस-प्रिंसीपल है। यूनिवर्सिटी में पढ़ाने की महत्वाकांक्षा ने ही उसे पी-एच.डी. के लिए प्रेरित किया है। वृद्धा माँ साथ रहती हैं। इसी से विवाह नहीं किया। उसने लजाकर कहा, ‘‘मैं विवाह कर लेती तो माँ को कौन देखता ? फिर एक भाई भी है। एकदम आवारा ! गत सातवर्षों से लगातार हाईस्कूल में फेल हो रहा है। उसके भरोसे माँ को छोड़ नहीं सकती। इसी से कल ही लौट जाऊँगी।’’
वह यदि नही भी बतलाती, तब भी मैं जान जाती कि वह कुँआरी है। बत्तीस वर्षों का संचित कौमार्य उसकी प्रत्येक विचित्र गतिविधि में स्पष्ट होकर उभर रहा था। कभी चश्मा खोल आँखों में किसी दवा की बूँदें छोड़ती, कभी सरदर्द की गोली बटुए से निकाल कर मुँह में धर लेती, कभी नाड़ी पकड़ उसी का स्पन्दन सुनने लगती, और फिर सहसा बटुए से अपने किसी गुरु का विवर्ण चित्र निकाल ललाट में लगा, होंठों ही होंठों में न जाने कौन-सा मन्त्र बुदबुदाने लगती। मैंने उससे, उसके उन गुरु के चित्र के विषय में कुछ नहीं पूछा। इससे शायद उसे निराशा भी हुई। फिर वह स्वयं कहने लगी, ‘‘पिछले वर्ष काशी में इनके दर्शन हुए। वहीं दीक्षा-मन्त्र लिया। दो सौ पच्चीस वर्ष के हैं। मुझसे बोले, ‘बेटी, दुखी क्यों है ?’
‘‘मैंने कहा, ‘‘महाराज, इस अनित्य संसार और जगत के कष्ट की ज्वाला से दग्ध हूँ।’ बोले ‘तुम्हारा कष्ट देखकर ही मेंने तुम्हें यहाँ बुलाया है। एक शब्द दूँगा, उसे ग्रहण करो। उसके प्रभाव से तुम्हारे समस्त कष्टों की परम निवृत्ति हो जाएगी।’ उन्होंने मुझे दीक्षा-मन्त्र दिया और मेरी आँखों के सम्मुख, अकस्मात, अन्तर्हित हो गए। सुना है, ऐसे दिव्य पुरुष, महानिशा में भी संचरण करने में समर्थ होते हैं। अहा-हा ! कैसा ज्योतिर्मय रूप, और भव्य मुखमंडल पर कैसी अपार करुणा !’’ भावावेश में अनुसूया पटवर्धन दोनों आखें बन्द कर झूम ही रही थी कि द्वार पर दस्तक हुई। चित्र को बटुए में डाल वह किसी षोडशी की-सी फुर्ती से उछली और चट द्वार खोल फिर अपनी बर्थ पर बैठ गई। द्वार पर एक भुजंग-सा काला व्यक्ति खड़ा हो गया। पीछे-पीछे कंडक्टर था, ‘‘क्षमा कीजिएगा, आपको यदि आपत्ति न हो तो मैं क्या ऊपर की बर्थ लेने की धृष्टता कर सकता हूँ ?’’
‘‘ये लेडीज कूपे हैं, इसमें आप कैसे आ सकते हैं ?’’ मेरा स्वर शायद आवश्यकता से कुछ अधिक ही रूखा हो उठा था। इस बार उस यात्री की कैफियत देने उसके पीछे खड़ा बौना कंडक्टर आगे बढ़ आया, ‘‘आई नो, आई नो, मैडम ! पर कहीं भी कोई बर्थ खाली नहीं है, और यह बेचारे बीमार हैं। मृत्यु-शैय्या पर पड़ी बहन को देखने जा रहे हैं। हें-हें-हें ! यदि आप लोग दया करें, तो शायद बहन का मुहँ देख लें।’’ खींसें निपोरता वह ऐसे विनम्र होकर दुहरा हो गया, जैसे वह स्वयं अपनी पैरवी कर रहा हो। मैं समझ गई कि उसकी मुट्ठी पर्याप्त मात्रा में गरम की गई है।
‘‘आप किसी अन्य महिला को हमारे डिब्बे में भेज, उनकी बर्थ इन्हें क्यों नहीं दे देते ?’’ मैंने भुनभुनाकर कहा।
‘‘जानता हूँ, मैडम, जानता हूँ। वही किया था। पर सब अपने परिवार के साथ हैं, लंबी यात्रा में सब एक साथ रहना चाहते हैं।’’
कोई बात नहीं, आ जाइए, ब्रदर, कम इन !’’ अनसूया पटवर्धन ने स्नेह-विगलित स्वर में उस अनजान यात्री को अपनी अविवेकी आमन्त्रण दिया तो मेरे जी में आया, तत्क्षण उसे चीरकर धर दूँ ! उसका भला क्या बिगड़ेगा, चौथे स्टेशन पर पल्ला झाड़कर चल देगी, मुझे ही तो उस भयावह व्यक्तित्व का सान्निध्य रात-भर सहना पड़ेगा ! शायह मेरे हृदय की भुनभुनाहट मेरे चेहरे पर स्पष्ट हो आई थी। अनसूया पटवर्धन मेरे दोनों हाथ पकड़कर हँसकर कहने लगी, ‘‘नाराज हो गईं बहन ? बर्थ देने, न देने वाले हम-तुम नहीं हैं। प्रयोज्य कर्ता हैं स्वयं परमात्मा
‘‘नहीं, मैं यहीं ठीक हूँ।’’ कह, मैंने उसका विनम्र प्रस्ताव फेर दिया था। अटपटे अनचीन्हें यात्रियों के सहचर्य से मुझे एकान्त ही अच्छा लगता है। किन्तु अँधेरा होते ही वह एकान्त मुझे सहमा गया। बत्ती जलाकर मैंने एक बार पढ़ी पत्रिकाओं को फिर उलटा-पलटा। चिटखनी ठीक से लगी है या नहीं, यह देखा। सिरहाने की खिड़की के दोनों शटर चढ़ा लिये। फिर भी न जाने कैसा भय लग रहा था। इससे पूर्व भी कई बार अकेले कूपे में यात्रा कर चुकी थी। किन्तु अस्तिबोध ने कभी नहीं सहमाया। मन ही मन मनाती जा रही थी कि किसी सदगृहस्थ का परिवार यात्री बन जाए, क्योंकि कंडक्टर कह गया था, नागपुर से प्रायः ही भीड़ बढ़ती है। नागपुर में कोई परिवार तो नहीं आया, किन्तु एक के बाद एक दो सहयात्रियों ने मेरे सशंकित चित्त को शांत कर दिया। एक महाराष्ट्रीय महिला केवल एक टोकरी और एक बटुआ लेकर ठीक सामने की बर्थ पर आकर बैठ गई तो मेराचित्त विषण्ण हो गया। मैं समझ गयी थी कि उसकी यात्रा निश्चय ही ह्रस्व होगी। शायद तीन-चार स्टेशन बाद ही उतर जाएगी क्योंकि संसार की कोई भी नारी दीर्घ यात्रा बिना सामान के सम्पन्न नहीं कर सकती। मेरा अनुमान ठीक ही था।
‘‘मुझे वर्धा तक कुछ काम था। गांधी-साहित्य पर रिसर्च कर रही हूँ।
नागपुर बहन के पास आई थी। अब दूसरी बहन के पास जा रही हूँ। चौथा स्टेशन पड़ेगा।’’ मेरी वह प्रगल्भ सहयात्रिणी उस संक्षिप्त अवधि में भी, निरन्तर मैंना-सी चहकती, अपना पूरा परिचय दे गई थी। उसका नाम अनसूया पटवर्धन है। विवाह नहीं किया। लड़कियों के किसी कालेज की वाइस-प्रिंसीपल है। यूनिवर्सिटी में पढ़ाने की महत्वाकांक्षा ने ही उसे पी-एच.डी. के लिए प्रेरित किया है। वृद्धा माँ साथ रहती हैं। इसी से विवाह नहीं किया। उसने लजाकर कहा, ‘‘मैं विवाह कर लेती तो माँ को कौन देखता ? फिर एक भाई भी है। एकदम आवारा ! गत सातवर्षों से लगातार हाईस्कूल में फेल हो रहा है। उसके भरोसे माँ को छोड़ नहीं सकती। इसी से कल ही लौट जाऊँगी।’’
वह यदि नही भी बतलाती, तब भी मैं जान जाती कि वह कुँआरी है। बत्तीस वर्षों का संचित कौमार्य उसकी प्रत्येक विचित्र गतिविधि में स्पष्ट होकर उभर रहा था। कभी चश्मा खोल आँखों में किसी दवा की बूँदें छोड़ती, कभी सरदर्द की गोली बटुए से निकाल कर मुँह में धर लेती, कभी नाड़ी पकड़ उसी का स्पन्दन सुनने लगती, और फिर सहसा बटुए से अपने किसी गुरु का विवर्ण चित्र निकाल ललाट में लगा, होंठों ही होंठों में न जाने कौन-सा मन्त्र बुदबुदाने लगती। मैंने उससे, उसके उन गुरु के चित्र के विषय में कुछ नहीं पूछा। इससे शायद उसे निराशा भी हुई। फिर वह स्वयं कहने लगी, ‘‘पिछले वर्ष काशी में इनके दर्शन हुए। वहीं दीक्षा-मन्त्र लिया। दो सौ पच्चीस वर्ष के हैं। मुझसे बोले, ‘बेटी, दुखी क्यों है ?’
‘‘मैंने कहा, ‘‘महाराज, इस अनित्य संसार और जगत के कष्ट की ज्वाला से दग्ध हूँ।’ बोले ‘तुम्हारा कष्ट देखकर ही मेंने तुम्हें यहाँ बुलाया है। एक शब्द दूँगा, उसे ग्रहण करो। उसके प्रभाव से तुम्हारे समस्त कष्टों की परम निवृत्ति हो जाएगी।’ उन्होंने मुझे दीक्षा-मन्त्र दिया और मेरी आँखों के सम्मुख, अकस्मात, अन्तर्हित हो गए। सुना है, ऐसे दिव्य पुरुष, महानिशा में भी संचरण करने में समर्थ होते हैं। अहा-हा ! कैसा ज्योतिर्मय रूप, और भव्य मुखमंडल पर कैसी अपार करुणा !’’ भावावेश में अनुसूया पटवर्धन दोनों आखें बन्द कर झूम ही रही थी कि द्वार पर दस्तक हुई। चित्र को बटुए में डाल वह किसी षोडशी की-सी फुर्ती से उछली और चट द्वार खोल फिर अपनी बर्थ पर बैठ गई। द्वार पर एक भुजंग-सा काला व्यक्ति खड़ा हो गया। पीछे-पीछे कंडक्टर था, ‘‘क्षमा कीजिएगा, आपको यदि आपत्ति न हो तो मैं क्या ऊपर की बर्थ लेने की धृष्टता कर सकता हूँ ?’’
‘‘ये लेडीज कूपे हैं, इसमें आप कैसे आ सकते हैं ?’’ मेरा स्वर शायद आवश्यकता से कुछ अधिक ही रूखा हो उठा था। इस बार उस यात्री की कैफियत देने उसके पीछे खड़ा बौना कंडक्टर आगे बढ़ आया, ‘‘आई नो, आई नो, मैडम ! पर कहीं भी कोई बर्थ खाली नहीं है, और यह बेचारे बीमार हैं। मृत्यु-शैय्या पर पड़ी बहन को देखने जा रहे हैं। हें-हें-हें ! यदि आप लोग दया करें, तो शायद बहन का मुहँ देख लें।’’ खींसें निपोरता वह ऐसे विनम्र होकर दुहरा हो गया, जैसे वह स्वयं अपनी पैरवी कर रहा हो। मैं समझ गई कि उसकी मुट्ठी पर्याप्त मात्रा में गरम की गई है।
‘‘आप किसी अन्य महिला को हमारे डिब्बे में भेज, उनकी बर्थ इन्हें क्यों नहीं दे देते ?’’ मैंने भुनभुनाकर कहा।
‘‘जानता हूँ, मैडम, जानता हूँ। वही किया था। पर सब अपने परिवार के साथ हैं, लंबी यात्रा में सब एक साथ रहना चाहते हैं।’’
कोई बात नहीं, आ जाइए, ब्रदर, कम इन !’’ अनसूया पटवर्धन ने स्नेह-विगलित स्वर में उस अनजान यात्री को अपनी अविवेकी आमन्त्रण दिया तो मेरे जी में आया, तत्क्षण उसे चीरकर धर दूँ ! उसका भला क्या बिगड़ेगा, चौथे स्टेशन पर पल्ला झाड़कर चल देगी, मुझे ही तो उस भयावह व्यक्तित्व का सान्निध्य रात-भर सहना पड़ेगा ! शायह मेरे हृदय की भुनभुनाहट मेरे चेहरे पर स्पष्ट हो आई थी। अनसूया पटवर्धन मेरे दोनों हाथ पकड़कर हँसकर कहने लगी, ‘‘नाराज हो गईं बहन ? बर्थ देने, न देने वाले हम-तुम नहीं हैं। प्रयोज्य कर्ता हैं स्वयं परमात्मा
‘त्वचा हृषीकेष हरिस्थितेन
यथा नियुक्तोस्मि तथा करोमि।’
यथा नियुक्तोस्मि तथा करोमि।’
वास्तविक प्रेरक वही है, मैं या तुम नहीं, समत्व ही योग है। बेचारा यदि एक बर्थ पाकर अपनी बहन का अन्तिम दर्शन कर लेता है, तो हमें कैसी आपत्ति ?’’
‘‘थैंक यू, थैंक यू, मैंडम !’’ वह व्यक्ति कृतज्ञता से दुहरा होता गया, बर्थ के ही एक कोने पर बैठ गया। अब तक मैंने उसका चेहरा ठीक से नहीं देखा था। सहसा मुझे झटका लगा। कैसे पहचाना-पहचाना-सा चेहरा लग रहा था ? मैं द्रुतगति से अचल स्मृति की अतल गहराई से, पूर्वपरिचित चेहरे खींच-खींचकर उससे मिलाने लगी। किन्तु स्मृति मेरी प्राणांतक चेष्टा के बावजूद अचल बनी जा रही थी।
जी में आ रहा था, पूँछूँ, ‘‘कौन हो तुम ? कहाँ परिचय हुआ है पहले ?’ भयावह रूप से काला चेहरा, सफेद-सफेद दाँतों की खिसियाई-सी हँसी और धृष्ट आँखों की तीखी मुखर दृष्टि, जो बार-बार मेरे चेहरे पर निबद्ध हो रही थी। तब क्या वह मुझे पहचानने की चेष्टा कर रहा था ? पहचानकर भी न पहचान पाने की अकुलाहट मुझे और भी सहमा रही थी।
‘‘अच्छा तो आप मद्रास जा रहे हैं ?’’ अनुसूया पटवर्धन उस यात्री से ऐसी अंतरंगता से बतियाती चली जा रही थी, जैसे वह उसका कोई बहुत दिनों बाद मिला आत्मीय हो।
‘‘चलिए, इनका साथ हो जाएगा, नहीं तो बेचारी अकेली रह जातीं। मैं तो बीच में ही उतर जाऊँगी।’’
‘‘ओह तो आप भी मद्रास जा रही हैं ?’’ उसने हँसकर पूछा और एक क्षण उस गतिहीन, शब्दहीन दृष्टि-विनिमय ने मेरे संदिग्ध चित्त को सचेत कर दिया। कैसी मूर्ख थी यह अनसूया पटवर्धन ! यह कहने की क्या आवश्य़कता थी कि वह बीच में ही उतर जाएगी और मैं मद्रास जाऊँगी ? फिर, मद्रास तक की यात्रा के लिए इस विचित्र यात्री ने एक सामान्य-सा थैला भी तो नहीं लिया था। एक क्षण को दो दिन पूर्व पढ़ी गई अखबारी कतरन की स्मृति मुझे भयत्रस्त कर गई : ‘फर्स्ट क्लास के डिब्बे में लेडी डाक्टर की निर्मम ! हत्या ! हत्यारा फरार !’
अनुसूया का अनर्गल प्रलाप बड़ी देर तक चालू रहा। वह यात्री किसी लंगूर की तरह लपकता कब अपनी बर्थ पर चढ़कर सो गया था।
जैसे-जैसे अनुसूया का गन्तव्य स्टेशन निकट आ रहा था, मेरा शंकालु चित्त काल्पनिक दुर्घटनाएं का जाल बुनता, सहमा जा रहा था। फिर मैं उस उलझन में अपना भावी निश्चय ले चुकी थी। अनुसूया के उतरते ही मैं स्वयं गार्ड से जाकर कह दूँगी कि या तो मेरे डिब्बे में किसी महिला यात्री को भेजने की व्यवस्था करें, या इस समाजविहीन, रहस्यपुरुष यात्री को अन्यत्र भेजें। कोई भी महिला यात्री, अकेले डिब्बे में पुरुष यात्री की उपस्थिति पर आपत्ति प्रकट कर उसका स्थानान्तरण करा सकती है, यह रेल नियम मैं जानती थी। फिर मेरा पक्ष तो और सबल था, लेडीज कूपे में वह आ कैसे गया ? किन्तु अनुसूया पटवर्धन मुझसे भावभीनी विदा लेकर उतरी, तो वह धृष्ट व्यक्ति स्वंय ही छिपकली-सी नीचे की बर्थ पर सरक आया। मैं उठकर बाहर जाने के लिए चप्पल पहन रही थी, और जैसा कि प्रायः होता है, ठीक ऐसे अवसरों पर चप्पलों का जोड़ा विदुर बना, दूसरी चप्पल ढूँढ़ने भारी-भरकम बक्सों के पीछे भागने लगता है। मुझे भी अपनी एक चप्पल नहीं मिल पा रही थी।
‘‘यह रही, मैडम !’’ वह मेरी एक चप्पल हाथ में लिए अपनी वही खिसियाई हँसी हँस रहा था। मैं चौंककर मुड़ी।
‘‘शायद, सरककर मेरी, सीट के नीचे आ गई थी।’’ फिर एक लम्बी साँस खींचकर वह किसी दार्शनिक भंगिमा में बड़ी गंभीर स्वर में कहने लगा, ‘‘समय ही बलिहारी है, कभी ऐसे ही चप्पल दिखाकर तुमने मुझे थर-थर कँपा दिया था।’’
मेरा कलेजा भय से हिम हो गया था, ‘कौन था यह, कौन ?’
‘‘शायद तुमने पहचाना। क्यों ? अभी याद नहीं आया ? यह दाँत देखो। अब शायद पहचान लोगी ? आज से पैंतीस वर्ष पूर्व तुम्हारे भाई के उस घातक मुक्के ने इसको स्मृति-चिह्न बनाकर छोड़ दिया था। भद्दा लगता था, इसी से विशालाक्षी में एक दिन जिद कर यह सोने की कैप लगवा दी। अब याद आया ?’’
हे भगवान, तब क्या यह अभागा आज पैंतीस वर्ष बाद मेरे भाई के मुक्के का प्रतिसोध लेने मुझे ढूँढ़ता यहाँ आया था ? पहचान लिया था। कैसी मूर्खा थी मैं, जो अब तक नहीं पहचान सकी ! उसे भला भूल सकती थी ? उस दानव की विचित्र गतिविधि...? जिसने कभी मेरा जीना दूभर कर दिया था। जिसके लिखे सत्रह-सत्रह पृष्ठों के सुदीर्घ प्रेम-पत्र, आदिवासी शत्रुओं के विषबुझे तीरों की भाँति, होस्टल छोड़ने पर भी मेरी पीछा करते रहे थे। जिसको देखते ही मेरी सर्वांग घृणा और भय से सिहर उठता था। जिसकी धृष्ट हँसी मेरे भाई के सशक्त मुक्के से भी म्लान न हो पाई थी। जो निरन्तर छाया की भाँति मेरा पीछा करता, मेरा छायाग्रास निगलता, मेरे छात्र-जीवन में पूरे पाँच वर्षों तक विष घोलता रहा था। उसे भला भूल सकती थी ? फिर एक बार सहसा साहस कर मैंने भरी कक्षा में ही उसे बुरी तरह फटकार दिया था।
‘आज अन्तिम बार तुम्हें चेतावनी देती हूँ, राघवन ! ऐसे मेरा पीछा किया तो इस ब्रह्मास्त्र को देख लो।’ कह मैंने अपनी चप्प्ल दिखा दी थी। सार्वजनिक सभा में दी गयी मेरी वह मुँहफट फटकार पाकर उसी दिन से उसने मेरा पीछा करना छोड़ दिया था, और मुझे यों उस घिनौने व्यक्ति से मुक्ति मिल गई।
‘‘थैंक यू, थैंक यू, मैंडम !’’ वह व्यक्ति कृतज्ञता से दुहरा होता गया, बर्थ के ही एक कोने पर बैठ गया। अब तक मैंने उसका चेहरा ठीक से नहीं देखा था। सहसा मुझे झटका लगा। कैसे पहचाना-पहचाना-सा चेहरा लग रहा था ? मैं द्रुतगति से अचल स्मृति की अतल गहराई से, पूर्वपरिचित चेहरे खींच-खींचकर उससे मिलाने लगी। किन्तु स्मृति मेरी प्राणांतक चेष्टा के बावजूद अचल बनी जा रही थी।
जी में आ रहा था, पूँछूँ, ‘‘कौन हो तुम ? कहाँ परिचय हुआ है पहले ?’ भयावह रूप से काला चेहरा, सफेद-सफेद दाँतों की खिसियाई-सी हँसी और धृष्ट आँखों की तीखी मुखर दृष्टि, जो बार-बार मेरे चेहरे पर निबद्ध हो रही थी। तब क्या वह मुझे पहचानने की चेष्टा कर रहा था ? पहचानकर भी न पहचान पाने की अकुलाहट मुझे और भी सहमा रही थी।
‘‘अच्छा तो आप मद्रास जा रहे हैं ?’’ अनुसूया पटवर्धन उस यात्री से ऐसी अंतरंगता से बतियाती चली जा रही थी, जैसे वह उसका कोई बहुत दिनों बाद मिला आत्मीय हो।
‘‘चलिए, इनका साथ हो जाएगा, नहीं तो बेचारी अकेली रह जातीं। मैं तो बीच में ही उतर जाऊँगी।’’
‘‘ओह तो आप भी मद्रास जा रही हैं ?’’ उसने हँसकर पूछा और एक क्षण उस गतिहीन, शब्दहीन दृष्टि-विनिमय ने मेरे संदिग्ध चित्त को सचेत कर दिया। कैसी मूर्ख थी यह अनसूया पटवर्धन ! यह कहने की क्या आवश्य़कता थी कि वह बीच में ही उतर जाएगी और मैं मद्रास जाऊँगी ? फिर, मद्रास तक की यात्रा के लिए इस विचित्र यात्री ने एक सामान्य-सा थैला भी तो नहीं लिया था। एक क्षण को दो दिन पूर्व पढ़ी गई अखबारी कतरन की स्मृति मुझे भयत्रस्त कर गई : ‘फर्स्ट क्लास के डिब्बे में लेडी डाक्टर की निर्मम ! हत्या ! हत्यारा फरार !’
अनुसूया का अनर्गल प्रलाप बड़ी देर तक चालू रहा। वह यात्री किसी लंगूर की तरह लपकता कब अपनी बर्थ पर चढ़कर सो गया था।
जैसे-जैसे अनुसूया का गन्तव्य स्टेशन निकट आ रहा था, मेरा शंकालु चित्त काल्पनिक दुर्घटनाएं का जाल बुनता, सहमा जा रहा था। फिर मैं उस उलझन में अपना भावी निश्चय ले चुकी थी। अनुसूया के उतरते ही मैं स्वयं गार्ड से जाकर कह दूँगी कि या तो मेरे डिब्बे में किसी महिला यात्री को भेजने की व्यवस्था करें, या इस समाजविहीन, रहस्यपुरुष यात्री को अन्यत्र भेजें। कोई भी महिला यात्री, अकेले डिब्बे में पुरुष यात्री की उपस्थिति पर आपत्ति प्रकट कर उसका स्थानान्तरण करा सकती है, यह रेल नियम मैं जानती थी। फिर मेरा पक्ष तो और सबल था, लेडीज कूपे में वह आ कैसे गया ? किन्तु अनुसूया पटवर्धन मुझसे भावभीनी विदा लेकर उतरी, तो वह धृष्ट व्यक्ति स्वंय ही छिपकली-सी नीचे की बर्थ पर सरक आया। मैं उठकर बाहर जाने के लिए चप्पल पहन रही थी, और जैसा कि प्रायः होता है, ठीक ऐसे अवसरों पर चप्पलों का जोड़ा विदुर बना, दूसरी चप्पल ढूँढ़ने भारी-भरकम बक्सों के पीछे भागने लगता है। मुझे भी अपनी एक चप्पल नहीं मिल पा रही थी।
‘‘यह रही, मैडम !’’ वह मेरी एक चप्पल हाथ में लिए अपनी वही खिसियाई हँसी हँस रहा था। मैं चौंककर मुड़ी।
‘‘शायद, सरककर मेरी, सीट के नीचे आ गई थी।’’ फिर एक लम्बी साँस खींचकर वह किसी दार्शनिक भंगिमा में बड़ी गंभीर स्वर में कहने लगा, ‘‘समय ही बलिहारी है, कभी ऐसे ही चप्पल दिखाकर तुमने मुझे थर-थर कँपा दिया था।’’
मेरा कलेजा भय से हिम हो गया था, ‘कौन था यह, कौन ?’
‘‘शायद तुमने पहचाना। क्यों ? अभी याद नहीं आया ? यह दाँत देखो। अब शायद पहचान लोगी ? आज से पैंतीस वर्ष पूर्व तुम्हारे भाई के उस घातक मुक्के ने इसको स्मृति-चिह्न बनाकर छोड़ दिया था। भद्दा लगता था, इसी से विशालाक्षी में एक दिन जिद कर यह सोने की कैप लगवा दी। अब याद आया ?’’
हे भगवान, तब क्या यह अभागा आज पैंतीस वर्ष बाद मेरे भाई के मुक्के का प्रतिसोध लेने मुझे ढूँढ़ता यहाँ आया था ? पहचान लिया था। कैसी मूर्खा थी मैं, जो अब तक नहीं पहचान सकी ! उसे भला भूल सकती थी ? उस दानव की विचित्र गतिविधि...? जिसने कभी मेरा जीना दूभर कर दिया था। जिसके लिखे सत्रह-सत्रह पृष्ठों के सुदीर्घ प्रेम-पत्र, आदिवासी शत्रुओं के विषबुझे तीरों की भाँति, होस्टल छोड़ने पर भी मेरी पीछा करते रहे थे। जिसको देखते ही मेरी सर्वांग घृणा और भय से सिहर उठता था। जिसकी धृष्ट हँसी मेरे भाई के सशक्त मुक्के से भी म्लान न हो पाई थी। जो निरन्तर छाया की भाँति मेरा पीछा करता, मेरा छायाग्रास निगलता, मेरे छात्र-जीवन में पूरे पाँच वर्षों तक विष घोलता रहा था। उसे भला भूल सकती थी ? फिर एक बार सहसा साहस कर मैंने भरी कक्षा में ही उसे बुरी तरह फटकार दिया था।
‘आज अन्तिम बार तुम्हें चेतावनी देती हूँ, राघवन ! ऐसे मेरा पीछा किया तो इस ब्रह्मास्त्र को देख लो।’ कह मैंने अपनी चप्प्ल दिखा दी थी। सार्वजनिक सभा में दी गयी मेरी वह मुँहफट फटकार पाकर उसी दिन से उसने मेरा पीछा करना छोड़ दिया था, और मुझे यों उस घिनौने व्यक्ति से मुक्ति मिल गई।
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